Monday, November 28, 2011

जब तुम बड़े हंसी थे.....

जब तुम बड़े हंसी थे, दिलकश थे, दिलनशीं थे...
देखते थे तुमको हर पल, गुस्ताख वो हमीं थे...

तुम बदली प्यार की थी, और प्यासी हम ज़मीं थे....
मंडराता था ये दिल जहाँ, वो फूल एक तुम्हीं थे....

हम भी तो तब जवान थे, कुछ मेरे भी कद्रदां थे...
पर मेरी नींद औ सपने, बस तुमपे मेहरबाँ थे...

लिखता था जो भी नगमे, सब लगते बद्ज़बां थे...
लिख पाते तेरे लायक कुछ, ऐसे शब्द आते हमें कहाँ थे.....

Friday, November 25, 2011

बेसब्री...किसी के "प्रीतम" की...


जब मिले न थे वो हमसे....जब तक मिली न थी उस नर्गिस से मेरी निगाहें...

तब तलक

बेसब्र ख्वाब थे मेरे..... बेसब्र थी आँखें.... बेसब्र कदम थे ... बेसब्र थी राहें.....



 मिल के भी अब क्यूँ वो पास नहीं...इतने दूर बैठ दिल को कैसे भला हम समझाएं ...

अब तो

बेसब्र है मोहब्बत मेरी, बेसब्र है हर हसरत....बेसब्र जज़्बात हैं...और बेसब्र हैं बाहें ....

Some Two Liners


1.
वो कहते हैं, हम क्यूँ उनके सजदे में पलके बिछाये खड़े रहते हैं हर वक़्त....
हम क्या करें यारों... खुदा की इबादत में सर झुकाना बुजुर्गों ने सिखाया है....

2.
जिस दिन बयान करना होगा तुझे , तो अलफ़ाज़ मुझे और भी बहुत मिल जायेंगे ....
तू साथ रह बस, तेरी बंदगी में सजदा करने को कवितायेँ तो क्या, उपन्यास लिखे जायेंगे ...

3.
नशा करते है लोग ..कुछ छुपाने को ...कुछ जताने को ...कुछ कह पाने को ..कुछ सह जाने को ....  
मैं तो हर लम्हा पी जाता हूँ यूँ ही एक घूँट में ...खामखा कुछ और बूँदें बिगाड़ने की जरुरत कहाँ है ...

4.
साथ तू रहे तो जश्न में पीतें हैं महफ़िलें सजा के.... वरना जाम तो मैखानों में भी बहुत मिला करते है....
पलकें वही हैं, फर्क तेरी मौजूदगी का है बस...कभी इनमे जुदाई के आंसू.... कभी तेरे सपने खिला करतें हैं....

5.
कौन कमबख्त कहता है की खुदा नहीं होता....और किसने अफवाह फैलाई की किस्मत जैसी कोई चीज़ नही होती ......
वो खुशकिस्मत न होता ...तो कैसे कंकड़ बीनते हुए को रास्तों में यूँ ही पड़ा मिल जाता ... गहरे समंदर का नायाब मोती........

Wednesday, November 16, 2011

आ.... चलतें हैं कहीं... दूर....


आ.... चलतें हैं कहीं...

कहीं दूर....बहुत दूर...


बिन तय करे ....मंजिलों की सूरत...

किन्ही अनजान गलियों के मेहमान बनके...

यूँ ही... नंगे पाँव निकल पड़ें...मुस्कुराते हुए...


सीने से लगाये एक दूजे की बंद पलकें..

लेटे रहे घंटों खुले आसमान के नीचे...

हाथों में हाथ फंसाए, चांदनी से नहाते हुए...


रात भर वादियों में ही कहीं, बैठें हों..

जलती लकड़ियों के दोनों और...खामोश...

आँखों से एक दूजे की सांसें सुनते हुए...


हुस्न निहारने की कोशिशें...चलती रहें

रौशनी में बेबस बाहें...खुद ही खुद जलती रहें

फिर रात बीते, बर्फ की झूठी बूंदे चुनते हुए ...


ठंडी रेत ओढें हम, और कभी गुलाब की पंखुड़ियां..

झील के बीच ठहरी नाव से सितारों को निहारें...

बाहों में सिमटे, धडकनों से लिपटे...सोये रहें बेहोश हुए...


जी लें हर एक एहसास...दिल को थोडा बीमार कर लें...

दो पंछी बन उड़ चलें इंसानी ऊँचाइयों से परे...

उड़ते रहे, आवारा परिंदों से, बस दिल की सुनते हुए...


आ .... उड़ चलते हैं एक नए छोर की और...

आ ...उड़ चलते हैं कहीं दूर...बहुत दूर....


..........Dedicated to someone really special (May be..Yet to be Met)

Saturday, November 12, 2011

कागज़ का एक टुकड़ा....

छोटा सा, मैला सा कोरे कागज़ का एक टुकड़ा...
जाने कहीं से उड़ के कल मेरे पैरों में आ गिरा...

बदहवास सी दौड़ती हवा के बहाव के साथ साथ...
मेरी उँगलियों पे कसते जा रहे थे उसके कांपते हाथ...

वो थोडा रोया, कुछ देर चुप बैठा, कभी कभी चिल्लाया भी...
अचानक थोड़ी हंसी, कुछ यादें, दर्द भरी आहें मुझे सुनाई दी...

कभी रहता था वो भी, वादों से बंधे ढेरों अपनों के बीच...
कुछ अनकहे, अनसुने, बैचैन, खामोश से सपनों के बीच...

कुछ सजीले, चमकीले, महकते, चहकते से रंगों के बीच...
कुछ उम्मीदों, आंसुओं, वादों, बातों और उमंगों के बीच...

इक दिन उसे सहेजने वाले हाथों की लकीरों में सजा कोई ख्वाब जो बिखरा..
उसके चंद लम्हों बाद कुछ धागे और टूटे, और वो था घायल होके ज़मी पे गिरा...

वहां भी भीड़ थी उसके अपनों की, कुछ खाली, कुछ भाग्यशाली, पर थे सब जख्मी...
आज़ादी आई नसीब में सदियों बाद, पर अकेली, साथ थी तो बस आँखों की  नमी...

तब शुरू हुई थी ये उड़ान, जो सब उलझे हुए रास्तों से अब है गुजर चुकी...
कतरा कतरा करके वो बिखरता रहा, पर ये बेदर्द हवा तब भी न रुकी...

बेहतर होता गर जल जाता, कम से कम रूह को तो उसकी सुकून आता..
गर नसीब जल ही हो जाता, तो धीरे ही सही, उसका वजूद  भी घुल जाता...

बस मिली हवा, जिससे नासूर बन जातें है जख्म, मिली भी तो ऐसी इक दवा...
अब थक गया, रुक गया, झुक गया, बस नींद बख्श देने की मांग रहा रब से है दुआ...

जो सुनी ये मैंने दास्ताँ, पहचानी सी लगी ये उड़ान, लगा, मैं ये सारे लम्हे जी आया ...
मैं निशब्द, स्तबद्ध सा रह गया, जब उसकी आँखो के दर्पण में, दिखा मुझे अपना साया...

निर्जीव और बुद्धिजीवी, जी रहे एक सा जीवन गर, तो मानव श्रेष्ठ क्यूँ कहलाया....
मैं अब भी सोचता हूँ...गर सजीव हूँ मैं....तो क्यूँ इक कोरे कागज़ से बेहतर न जी पाया...  

Tuesday, November 8, 2011

"कुछ"..."कभी कभी"


कुछ जख्म दर्द नहीं दिया करते, और कभी एक खामोश नज़र रुला जाती है हमें ....
कभी गुस्सा प्यारा लगता है, वहीँ कुछ लफ़्ज़ों से मिली तकलीफें भी मज़ा लगती हैं ....

हक की कुछ कुछ बेड़ियाँ कभी चुभती नही, कभी अकेले उड़ना बंदिश सा लगता है...
कुछ आंसू हंसा देते हैं कभी दिल को , वहीँ कभी यूँ ही मिली माफ़ी भी सजा लगती है...

Wednesday, November 2, 2011

बेफिक्री उनकी ...

देखा नहीं जिन आँखों ने ....मुझे उन चार सालों में...
आया न होगा चेहरा मेरा.....कभी जिनके ख्यालों में....

मर गये उनकी गली में एक दिन...सोचा वो जानेंगी इसी बहाने से...
यहाँ उठ गया जनाज़ा मेरा...उन्हें फुर्सत न मिली मेहँदी लगाने से... 

नादाँ ज़िन्दगी ...

खुदा ने प्यार से इतने, लगा के साल यूँ कितने...
किसी बगिया के जैसी ये.. हंसी दुनिया बनायीं है..

बनाये रंक भी उसने, सजाये ताज भी कितने
किसी के लाख अपने हैं, कहीं सांसे परायी है...

छुपाये हैं कहीं आंसू, कहीं खुशियाँ छुपायी है...
सजता स्वप्न उसी सा है, इरादों में जो स्याही है...

निगाहें नर्गिसों की हों, या आँखें आशिकों की हों
कहीं बसती मोहब्बत है, कहीं बस बेवफाई है...

कुछ जज़्बात जीतते हैं, कभी इंसान जीतते हैं...
पर जीते दर्द हैं जिसने जितने, वही उसकी कमाई है..

गुलाब सा खिल के यूँ महको, न सोचो की दुनिया ने
तुमको बिखेर के ...
एक डोली सजाई है, या फिर कोई अर्थी सजाई है...
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