Monday, March 28, 2011

तू बुझदिल नहीं ....जिंदादिल है यारा


अनंत  नीले  नभ  में  सितारों  को  देख  उन्हें  जेबों  में  भर  लेने  की  तमन्ना  तो  बहुत  थी  जाने  कब  से 
पर  ना  पर  थे  काबिल  उतने , ना  ही  कोई  सितारा  सज संवर  कर  मेरी  राह  ताकता  नज़र  आता  था  मुझे

एक  दिन  जाने  जादूगरी  किसने  की , खूबसूरत  और  नाजुक  पंख  मेहनतकश  हो  गये , उड़ने  लगा  मैं
ज़माने  की  छोटी  छोटी  ऊंचाइयों  का  डर  ख़त्म  करता  हुआ, उन्मुक्त  हवा  की  सवारी  करने  लगा  मैं

महसूस  होने  लगी  है  बेइंतहा  बेकरारी  उस  शून्य  में  खो  जाने  की , अभिलाषा  वो  अंतिम  डग  भरने  की
अब सामान्य  न  व्यव्हार  रहे  ना  विचार, वो  चाँद  हासिल  करना  है, जिद  है  उस धरती  पे  पग  धरने  की

जाने  कितनी  रातें  जुगनुओ सी  काटी  है  मैंने, यहाँ  पहुँच कर  अब  चांदनी  ज्यादा  हसीं  और  खुदा  मेहरबान  लगता  है
दर्द  भूल  गया  हूँ  चाँद  संग  ले  आने  की  ख़ुशी  में, मंजिल  नायाब है  इतनी,  की  हर  रास्ता  आसान  लगता  है

उड़ते  उड़ते  गिर  भी  जाऊ  तो  गम  नही, पर  पंख  फडफडाते  हुए  पडावों  पे  अब  रुकना  बहुत  मुश्किल  है , पर  तू  कहे  तो  नामुमकिन  वो  भी  नही
ये  उड़ान  पूरी  ना  होने  का  रंज  तो  हमेशा  रहेगा, पर  सुकून  इतना  है,  की  मैं  जख्म  के  डर  से  जोखिम   ना  लेने  वालो  सा  बुझदिल  तो नही 

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