Saturday, November 12, 2011

कागज़ का एक टुकड़ा....

छोटा सा, मैला सा कोरे कागज़ का एक टुकड़ा...
जाने कहीं से उड़ के कल मेरे पैरों में आ गिरा...

बदहवास सी दौड़ती हवा के बहाव के साथ साथ...
मेरी उँगलियों पे कसते जा रहे थे उसके कांपते हाथ...

वो थोडा रोया, कुछ देर चुप बैठा, कभी कभी चिल्लाया भी...
अचानक थोड़ी हंसी, कुछ यादें, दर्द भरी आहें मुझे सुनाई दी...

कभी रहता था वो भी, वादों से बंधे ढेरों अपनों के बीच...
कुछ अनकहे, अनसुने, बैचैन, खामोश से सपनों के बीच...

कुछ सजीले, चमकीले, महकते, चहकते से रंगों के बीच...
कुछ उम्मीदों, आंसुओं, वादों, बातों और उमंगों के बीच...

इक दिन उसे सहेजने वाले हाथों की लकीरों में सजा कोई ख्वाब जो बिखरा..
उसके चंद लम्हों बाद कुछ धागे और टूटे, और वो था घायल होके ज़मी पे गिरा...

वहां भी भीड़ थी उसके अपनों की, कुछ खाली, कुछ भाग्यशाली, पर थे सब जख्मी...
आज़ादी आई नसीब में सदियों बाद, पर अकेली, साथ थी तो बस आँखों की  नमी...

तब शुरू हुई थी ये उड़ान, जो सब उलझे हुए रास्तों से अब है गुजर चुकी...
कतरा कतरा करके वो बिखरता रहा, पर ये बेदर्द हवा तब भी न रुकी...

बेहतर होता गर जल जाता, कम से कम रूह को तो उसकी सुकून आता..
गर नसीब जल ही हो जाता, तो धीरे ही सही, उसका वजूद  भी घुल जाता...

बस मिली हवा, जिससे नासूर बन जातें है जख्म, मिली भी तो ऐसी इक दवा...
अब थक गया, रुक गया, झुक गया, बस नींद बख्श देने की मांग रहा रब से है दुआ...

जो सुनी ये मैंने दास्ताँ, पहचानी सी लगी ये उड़ान, लगा, मैं ये सारे लम्हे जी आया ...
मैं निशब्द, स्तबद्ध सा रह गया, जब उसकी आँखो के दर्पण में, दिखा मुझे अपना साया...

निर्जीव और बुद्धिजीवी, जी रहे एक सा जीवन गर, तो मानव श्रेष्ठ क्यूँ कहलाया....
मैं अब भी सोचता हूँ...गर सजीव हूँ मैं....तो क्यूँ इक कोरे कागज़ से बेहतर न जी पाया...  

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