Monday, October 31, 2011

पिछले कुछ दिन...यारों के संग ...यारों के बिन ...

व्यस्त था मैं पिछले कुछ दिनों....
अपने निठल्लेपन में...
समय के बदले समय मांग रहा था..
भीड़ तलाश रहा था अपने अकेलेपन में...


यूँ बेकार बैठा कुरेद रहा था...
छोटे छोटे सुराखों को ...
प्रेम से बनाये स्वप्न महल को
खोखला बस कर रहा था...


कोई वजह न थी ...
बस व्यर्थ का समय था,
और व्यर्थ की ऊर्जा...


ये सब व्यर्थ में ही उधेड़बुन मचा रहे थे मेरे ही सपनों के खिलाफ
मैं व्यर्थ ही व्यर्थ की साजिश रच था मेरे ही अपनों के खिलाफ

ये तो खुशकिस्मती थी की नाजुक न थे कंधे मेरे यारों के...
तो खड़ा रहा आशियाँ-ए-दोस्ती यूँ ही बिन दीवारों के...

अब तो कुछ सांसें अपनी बेवकूफी पे पछता रही हैं ...
कुछ अपनों के सजदे में परायी होके खुद पे इतरा रही हैं...

कुछ शब्द जो मैंने कहे उन्हें...
कुछ डांट जो उनसे सुनी उसपे...
मैं आंसू बहाते हुए हंस पड़ा...


दिख गया वो मुस्कुराता साया...
उसी सुराख से आई रौशनी में...
जो चुप चाप वहीँ मेरे पास था खड़ा...


वो कहता है हंस के मुझसे... तू जानता है...
एक बात को कितनी बार कहूँ...
तू ख़ास है मेरे ख्वाबों में...
चाहे जितना भी तुझसे दूर रहूँ...

मैं भी कह पड़ा...हर बार की तरह...

हाँ पता है मुझको ...यार मेरे...
मेरे ख्याल भी है बस नाम तेरे ...
बस तुझसे "कुछ भी" से लेकर
"सब कुछ" तक सुनना अच्छा लगता है ...
इस तेरी आदत के मारे को,
बस तेरे साथ का लालच ठगता है...

फिर खड़े हुए वही साए दो ...
फिर गले मिल यूँ मुस्कुराये वो ...

बोले ....

आँखें अकेले में कभी भिगोना ना,
इन लम्हों को दामन से कभी खोना ना...
हंस के जियेगा तू जितने दिन...
मैं भी रह लूँगा तेरे बिन...
जब सांस टूटे मेरी तब रोना बस एक दिन....
निकलूंगा न यूँ दिल से तेरे, मेरे हिस्से के आंसुओं के बिन....तेरे आंसुओं के बिन....
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