Thursday, March 31, 2011

कप इस बार हमारा है...

बिना  शूल  के  पथ  ऊंची  मंजिलों  की  और  नही  जाते  यारों ......

बिना  क़त्ल  के  जूनून  और  रक्त  की  प्यास  के  मैदान  - ए  - जंग  नही  जीता  जाता .....

जब  नींद  नही, खून  उतरता  है  आँखों  में, जलजला  उठता है  जज्बातों  में ....

फिर  जान  जाये  या  जहां  जाये, हमें  शान - ए - हिन्दुस्तान  के  सिवा  कुछ  और  नज़र  नही  आता .....

जब  श्रीलंकाई शेरो  से  सामना  होगा, बराबर  के  वार  होंगे ....तभी  जी  भर  के  खायेंगे  अब ...

तभी  आएगा  मज़ा  लबों  पे  लहू  मलने  का, क्यों की  अब  हिन्दुस्तानी  चीतों  को  मुफ्त  का  गोशत  नही  भाता ....

Monday, March 28, 2011

तू बुझदिल नहीं ....जिंदादिल है यारा


अनंत  नीले  नभ  में  सितारों  को  देख  उन्हें  जेबों  में  भर  लेने  की  तमन्ना  तो  बहुत  थी  जाने  कब  से 
पर  ना  पर  थे  काबिल  उतने , ना  ही  कोई  सितारा  सज संवर  कर  मेरी  राह  ताकता  नज़र  आता  था  मुझे

एक  दिन  जाने  जादूगरी  किसने  की , खूबसूरत  और  नाजुक  पंख  मेहनतकश  हो  गये , उड़ने  लगा  मैं
ज़माने  की  छोटी  छोटी  ऊंचाइयों  का  डर  ख़त्म  करता  हुआ, उन्मुक्त  हवा  की  सवारी  करने  लगा  मैं

महसूस  होने  लगी  है  बेइंतहा  बेकरारी  उस  शून्य  में  खो  जाने  की , अभिलाषा  वो  अंतिम  डग  भरने  की
अब सामान्य  न  व्यव्हार  रहे  ना  विचार, वो  चाँद  हासिल  करना  है, जिद  है  उस धरती  पे  पग  धरने  की

जाने  कितनी  रातें  जुगनुओ सी  काटी  है  मैंने, यहाँ  पहुँच कर  अब  चांदनी  ज्यादा  हसीं  और  खुदा  मेहरबान  लगता  है
दर्द  भूल  गया  हूँ  चाँद  संग  ले  आने  की  ख़ुशी  में, मंजिल  नायाब है  इतनी,  की  हर  रास्ता  आसान  लगता  है

उड़ते  उड़ते  गिर  भी  जाऊ  तो  गम  नही, पर  पंख  फडफडाते  हुए  पडावों  पे  अब  रुकना  बहुत  मुश्किल  है , पर  तू  कहे  तो  नामुमकिन  वो  भी  नही
ये  उड़ान  पूरी  ना  होने  का  रंज  तो  हमेशा  रहेगा, पर  सुकून  इतना  है,  की  मैं  जख्म  के  डर  से  जोखिम   ना  लेने  वालो  सा  बुझदिल  तो नही 

मेरा गाँव


मेरा  छोटा  सा, प्यारा  सा  गाँव ...धीरे  धीरे  शहर  बन  रहा  है ...
खूबसूरत  बन ने  की  कोशिश  में  जाने  संवर  रहा  है  या  उजड़  रहा  है ...

रास्ते  लम्बे  लगते  थे  तय  करने  में ...
जब  धुल  भरी  पगडण्डी  पे  बैलगाड़ी  में  किसी  से  मिलने  अढाई  कोस  जाना  होता  था ...
पगडण्डी  का  पहनावा  बदल  गया , हमारी  सवारी  बदल  गयी ...
पर  हैरान  हूँ  दूरियों  को  देख ..वो  तो  शायद  कुछ  ज्यादा फ़ैल गयी ...

बारिश  में  छप्पर  से  टपकता  पानी ...
जब  मिटटी  के  आँगन  पे  माँ  के  बनाये  मांडनो  पे  गद्दे  करता , मैं  झल्लाता  था ...
अब  पक्के  मकान  बन  गये  हैं , पर  अब  घर  महकता  नही  कभी ...
नूतन विकास के लिए  हमने उन  बूंदों  और  मिटटी  के  मिलाप  से  बनी  खुशबु  खो  दी ...

हर  विचार  पे  मिलते  थे  अनचाहे  सुझाव ...
पहले  ढेरो  टिप्पणियाँ मिलती, फिर  विजयी  सुझाव  पे  सब  अपना  हक  जतलाते  थे ...
अब  बाहर  सभा  नही  जुडती , अब  यु  ही  शाम  नही  कटती ...
मुश्किलें  अब  भी  है , बस  अब  उतनी  आसानी  से  नही  सुलझती ...

पालतू  पशु  परेशानी  के  सबब  लगते  थे ...
झड़े  हुए  पत्ते  और  गोबर  के  बने  कंडे , हर  घर  की  मुंडेर  पे  दीखते  थे ...
अब  साफ़  रहती  है  चारदीवारी , पर  खानपान  की  शुद्दता  नही ...
गंदगी  भी  कम  हो  गयी ...पर  पदों  की  छाँव भी  न  बची  कही ...

सुस्ताती , धीमी  ज़िन्दगी  रास  नही  आती   थी ...
हर  शाम  रंगीन  चाहते  थे , हर  रात  कही  ऊँचा  उड़  जाने  के सपने  दिखाती  थी ...
दौड़ने  लगे  है  अब , शायद  थोड़े  सपने  भी  पूरे  हुए  है ...
पर  इस  एक  पल  के  लिए  हमने ..सुकून  के  कितने  पहर  खोये  है  ...

चल  रहा  है  गाँव  मेरा ..अथक , निरंतर ...पर  जाने  किस  मंजिल  की और ...
पकडे  चल  रहे  है  जो  डोर , एक  अशांत  एकाकी  गली  की  और  जा  रहा  है  उसका  दूसरा  छोर ...

Thursday, March 24, 2011

जी करता है....

बैठे  हुए  यु  ही  अचानक  कही जाने  को  उठ  खड़ा  होता  हूँ  ...
                                            तेरे  पास  चले  आने  का  जी  करता  है  ....

अपनों  के  साथ  गुजरते  लम्हों  में  से  कुछ  पल  चुराकर .....
                                           बस  तुझे  याद  करने  का  जी  करता  है ...

हंसी  ठिठोली  करते  हुए  कुछ  देर  यूं  ही  चुप  हो  जाता  हूँ  ...
                                          तुझ  संग  अकेले बतियाने  का  जी  करता  है  ....

होश  में  रहने  में  अब  मज़ा  कहाँ  - तुझ  में  ही  खोया  रहता  हूँ ...
                                          तेरे  इंतज़ार  में  पलके  बिछाने  का  जी  करता  है  ....

तेरी  और  बढाता  हु  हर  कदम  और  यूं   ही  चलते जाना  है  मुझे ....
                                          जीना  है  मुझे,  पर  क्या  करूँ...तेरी  हर  अदा  पे  मरने  का  जी  करता  है  .....


नयी आरज़ू


शब्दों  के  संयोग  सजाने  की  मेरी  कला  तो  बस  बेमानी  है 
आरज़ू  है  अब  यह  के  इस  दिल  में  तेरी  एक  दिलकश  तस्वीर  बनानी  है  ...
बयां  तो  इस  बला की  खूबसूरती  को  न  कलम  कर  सकती  है  ना  केनवास  के  रंग ...
ये  तो एक नया  बहाना  है  ..तुझे  एकटक  निहारने  का ...घंटो  बैठ  जाने  का  तेरे  संग ...

Friday, March 11, 2011

जाल क्यों बुन लूं खुद ही ?

शायद  मुझे  नही  पता  - प्यार , ज़िन्दगी , कर्तव्य , सफलता  के  मायने  क्या  है 
चंद  होठों  पे  मुस्कान  सजाये  रखने  का  बस  खुद  से  वादा  किया  है  ...
कुछ  लड़खड़ाते  कदमो  का  सहारा  बन ने  की  कोशिश  है ...
कुछ  आँखों  के सपने  पूरे  करने  की  ख्वाहिश  है ..

अब गिले  शिकवे  मिटाने है , शिकायतें  नही  करनी ...
भरोसा  करना  है  खुद  पे , झूठी  उम्मीदें  नही  करनी ...

मैं  शब्दों  के  व्यर्थ  अर्थों  में  उलझना  नही  चाहता ...
रिश्तों  को  तवज्जो  देना  सीखा  है , बस  उन्हें  नाम  देना  नही  आता ..
प्यार  और  जीवन  पे  चंद विशेषज्ञों  की  टिप्पणियाँ  अब  सुनना  नही  चाहता ...
चुन  लिए  चंद  धागे  मैंने  रिश्तों  के , उनसे  जाल  अपने  लिए  बुनना  नही  चाहता ...

ओ मुसाफिर... For Pritam

ओ  मुसाफिर ...तेरी  जिंदादिली  का  कायल  हूँ  मैं 
बहता  जा  यूं  ही
पर्वतों  को  चीरता
खिलखिलाते  हुए ...

मुस्कुराता  जा  मुसीबतों  में ...
धुप  में  चमचमाती  ओस  की  तरह
छु  ले  आसमा
हवा  के  पंखो  पे  बैठ  लहराते  हुए ...

जीता  जा  यूं  ही ...
अथक ..चलता  जा ...
एक  दिन  तेरी  मंजिल  पे  पहुँच  ...
बैठ  के .. बहुत सी  बातें  करेंगे ...

याद  रखना  उस  पल  तक ....
मेरी  हर  महफ़िल  में
एक  जाम  और  मेरे  दिल  का एक  कोना  ...
हमेशा  तेरी  राह  ताका  करेंगे ...
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