Saturday, May 14, 2011

"प्रेम".... इसकी परिभाषा क्या है ?

प्रेम ... एक अद्भुत शब्द ....और मेरा ये लेख इस शब्द का सार्थक अर्थ ढूँढने का प्रयास ...

वर्तमान परिदृश्य में "भावनात्मक होना" समझदार  व्यक्तित्व  का अंग  नहीं  माना  जाता किन्तु कद्रदानों की गिनती के लिहाज से "प्रेम"  एक भाग्यशाली भावना है | भावुकता की उलझनों से बचने की हर संभव कोशिश करता मानव प्रेमजाल में फंसना अपनी खुशकिस्मती समझता है और क्यों न हो, मात्र ढाई आखर संजो देने से बना यह शब्द विश्व के सबसे सुहावने रिश्तों को संवारता है |

प्रेम का क्रीड़ास्थल वृहद् क्षेत्र में विकासशील है, न खिलाडी कम होते नज़र आते हैं, न ही क्रीडा प्रेमी | प्रेम सबसे ज्यादा प्रचलित विषय है और शायद इसी भेडचाल की बदौलत हर मनुष्य का दिमाग इसी के इर्द गिर्द मंडराना पसंद करता है | इस विशेष योग्यता पुरस्कार का कारण या तो इस शब्द की वृहद् उपयोगिता है या फिर ये सत्य है की इस कायनात का सबसे खूबसूरत पहलु प्यार ही है |

इसका चाहे जितना शक्तिशाली अस्तित्व हो पर मैं प्रेम को एक आत्मनिर्भर भावना  नहीं मानता | ये भिन्न भिन्न परिस्तिथियों और अवसरों पर जाने कितने एहसासों का प्रतिफल  या एक पृथक नाम है | पिता के लिए आपका आदर, माँ की ममता, आपका किसी व्यक्ति विशेष के विचारों के प्रति सम्मान, नादान बच्चों की शरारतों से मिलने वाली ख़ुशी, दोस्तों के ख्याल रखने की आदत से मिलने वाला सुकून, मेहनत  के अनुरूप फल देने वाले कर्म से संतुष्टि, किसी  ख़ूबसूरती या किसी के धैर्य की प्रशंसा या फिर "किसी से विचार मिलने पर आँखों का समझदार हो जाना" - यही सब मौके प्रेम के  जन्मदाता है |

प्रेम पावन भी है और कभी कभी कलुषित मुखोटे का स्वामी भी, किन्तु चंद अवसरवादियों ने अपने स्वार्थ भुनाने को "प्रेम" का दायरा संकुचित करके विपरीत ध्रुवों के आकर्षण पर केन्द्रित कर दिया है | यह दुर्भाग्यपूर्ण है की जिन  अवसरों का विश्लेषण किया जाता है उनमे इस मैराथन के धावक कोई प्रेमी युगल ही होते हैं | "उदाहरण केवल नाकामयाब रिश्तों और कामयाब इंसानों के ही दिए जाते हैं |" इन्ही "कुकृत्य" के मौकों पर अपने प्रभुत्व और तथाकथित समाजसेवी होने के अधिकार के चलते कुछ ठेकेदार "प्रेम" को कलंकित कृत्य करार देते हैं | सफलता तो कई बार खून के रिश्तों को भी नसीब नहीं होती किन्तु वो भुला दिया जाता है क्युकी उस मुद्दे का चीरहरण करने से उनका स्वार्थ सिद्ध नही होता |

इस सामजिक जीवन में रिश्ते खट्टे मीठे क्षणों को साथ मिल के जीने का ही निमित्त हैं | अगर आप अपने माता पिता, रिश्तेदारों से प्रेम कर सकते हैं, अपने आदर्श व्यक्तित्व वाले प्राणी से प्रेम कर सकते हैं तो किसी नए साथी को जीवन में लाकर उससे प्रेम बंधन बांधना अनुचित तो नहीं | प्रीतान्कुर के अंकुरण से लेकर  प्रेम विवाह के निर्णय तक सब "जायज़" होता है यह मैं नहीं कहता, परन्तु हर रिश्ते को नाम देने और उसकी मंजिल तय करने का हक इन "विशेषज्ञों" को किसने दिया ?

हर रिश्ते के प्रति एक कलुषित नज़रिया विकसित करने में मैं "बॉलीवुड" के "प्रेम और प्रेम विवाह" के अलावा किसी भी मुद्दे को परदे पर न उतारने की कसम खाने वाले निर्देशकों का बहुत सहयोग मानता हूँ | लड़की की हर मुस्कान को उसकी "हाँ", और हर सास को खलनायिका  दर्शाने का बीड़ा उन्होंने बखूबी निभाया | आज उन्ही की बदौलत कोई साधारण विचारधारा का मालिक नहीं हैं, सब पर एक "विशेष सोच" की परत चढ़ चुकी है | ज़िन्दगी मुश्किल है नहीं, ज्यादा सोचने की वजह से कठिन हो जाती है |

प्रेम पुजारी होने का दावा करने वाले जब एक दुसरे की मजबूरियों को स्वार्थ का नाम देते हैं तो  उनके भी "एक विशेष सोच" से ग्रसित होने का संकेत मिलता है | आप बिना प्रेम किये भी किसी के व्यक्तित्व को सराह सकते हैं, बिना दोस्ती के किसी की मदद कर सकते हैं | पर ना तो ये करने वाले इतना कम सोच पाते हैं, ना ही जिनके लिए किया जाता है वो | अपने कर्तव्यों का सहज पालन अस्तित्व की कुर्बानी समझ आने लगता है |

प्रेम ओछी हरकत नहीं है परन्तु उसके लिए "बंद दिमाग" से लिए गए निर्णय भी सही नही ठहराए जा सकते | हर नाम में प्रेम महत्वपूर्ण है |  अगर प्रेमी / प्रेमिका से तुम्हारे बंधन प्रगाढ़ है तो माता पिता के साथ तुम्हारे संबंधों की गरिमा भी विचारणीय है | शायद कहना आसान है, सोचना बहुत मुश्किल है और करना उससे भी ज्यादा मुश्किल है |

एक लकीर अवश्यम्भावी है, बस वो खुद खींचो | किन्ही चंद लकीरों के फ़कीर बनकर दूसरों के लिए अपना जीवन उलझाओ | जो करना है स्वविवेक से करें ...निर्णय "यश राज फिल्म्स" के किरदारों की ज़िन्दगी का नहीं, आपकी ख़ुशी का है | "प्रेम" आपने किया है , उसकी परिभाषा भी आपही को लिखने का अधिकार है |

"हर प्रेम की विजय आवश्यक है वो जिस भी आकार, प्रकार, नाम, उपनाम में हो "

इस विषय को चुनने के पीछे भी "प्रेम" ही छिपा है, मेरे शब्दों का उनके पाठकों के प्रति प्रेम और पाठकों का एक मसालेदार वाद परिवाद से प्रेम क्यूंकि वर्तमान समय में सबसे ज्यादा प्रचलित और चर्चित भावना "प्रेम" है |

Thursday, May 5, 2011

गर बेवफा हो वो...

जहाँ कुछ  बंधन  दर्द दे जाते है  वहीं  कुछ रिश्तों  की  गांठें मौत से भी हमें बचा लाती  हैं ...
चाहे जितनी चोटें खा ले, पर इस दिल - ए - नादाँ की ये उलझनें कहाँ सुलझ पाती  हैं ...

गर  मिले  सच्चा  प्यार  करने  वाला  तो  बेखुदी  का  आलम  रहता  है बिन  शराब  के ....
वहीं गर बेवफा हो देने वाला तो चुभने लगते हैं हाथों में नाजुक पत्ते उसी गुलाब के ....

Tuesday, May 3, 2011

मैं ..."शब्दों" के संग

उन्मुक्त  बंधन  में  लिपटी  लहरों और  शांत  चंचलता  के  साथ  कल  कल  ध्वनि  करती  वो  निरंतर  प्रवाह   की  स्वामिनी  बन  इठला  रही  है, उसी  के  दो  विरोधी  किनारों  पे मुझे  दो  भिन्न  संस्कृति  नज़र  आती  रही  है |

एक  तरफ  साज  है, श्रंगार  है.....समाज  है  और  बाज़ार  है
तेज़  धुप  है, ममतामयी  छाँव भी  है ...कुछ  शहर  है, चंद  गाँव भी है 
हंस  हंस  के  लोट  पोट  होते  बच्चे , और पसीने  बहाते  किसान  है  
मंदिर  और  गिरिजाघर  है ....कहीं  गुरबानी  कहीं  अजान  है |

पर  दुसरे  छोर  के  घने  जंगल  के  सन्नाटे  को  चीरती  वो  पगडण्डी  जहाँ   जा  रही  है , उस  वातावरण  को  संस्कृति  कहना  शब्द  का  दुरुपयोग  करने  जैसा  है..... शायद  संस्कृति  के  सृजन  के  लिए  सहयोगी  घटक  उपलब्ध  नही  हैं  यहाँ |

झुरमुटो  के  तले  अँधेरे  में  नगण्य  गति  से  पलके  झपकाती  हुई, पलाश  के  जीवनहीन  पत्तों  की  चादर  में  दुबके  अपनी  पहचान  के  लुप्त  होने  का  इंतज़ार  कर  रही  एक वैभवहीन  झोंपड़ी |
जितने  प्रेम  और  निस्वार्थ  भावना  के  साथ  ये  संस्कृतिहीन  व्यवहार  मुझे  अपने  आलिंगन  में  लेता  है, उतने  जज्बातों  के  लिए  शायद  दुसरे  छोर  पर  अपनी  पूरी  आजीविका  व्यय  करनी  पड़े |

समाज  बहुत   प्रेमी  है, बस  उद्देश्यहीन  नही  है |
हर  इंसान  अपनी  मंजिल  की  तरफ  दूसरी  इंसानी  सीढियों  को पीछे  धकेल  कर आगे  बढ़  रहा  है | जितना  मूलभूत  नियम  भौतिकी  का  यह  है  - "चलने  के  लिए  आपको  प्रथ्वी   को  पीछे  धकेलना  होता  है" , सामाजिक  स्वभाव  में  उतनी  ही  गहराई  तक  "पीछे  धकेलने " का  नियम  समाहित  हो  गया  है  ...

प्रकृति  ने  हमारे  लिए  कोई  नियम  नही  बनाये  बस  स्वतंत्रता  दी , उसी  हक  के  गुमान  में  हमने  दूसरों  के  अधिकार  छीनने   शुरू  कर  दिए | नियमित  जीवन  आदर्श  माना  जाता  है  पर  नियमो  की  पारदर्शिता  भी  एक  विचारणीय  बिंदु  है |
वर्तमान  में  नियमो  के  अर्थ  अपनी  अनुकूलता  के  अनुरूप  ओढ़े  जाते  है और  जिनका  चोगा  बदलना  मुश्किल  है  वो  तोड़े  जाते  हैं |

सामाजिक  पशु  होने  का  धर्म  मैंने  भी  निभाया, नियम  निभाए  किन्तु जो  भी  मिला  "थोडा  कम " लगता  था ..संतुष्टि  नहीं  मिली | फिर  नियम  बदले  भी  और  तोड़े  भी और  जब  नियम  तोड़े  तो  लगा  जैसे एक  लकीर  को  छोटा  साबित  करने  के  लिए  बड़ी  लकीर  खेंच  दी  मैंने ...."जी तो भरा नही" बस  अपने  ही  दामन  पे  कुछ  कालिख  और  लगा  ली |

गलतियाँ  करने  के  लिए  हर  बार  मेरे  "सर्वाधिकार  सुरक्षित"  हैं और गलती  छुपाने  का  मानवीय  स्वभाव भी  मेरा  अभिन्न  अंग  है |  परन्तु इस  कलुषित  चेहरे  के  लिए  दोष  किसे  दूं  ?

लालच तो मेरे  सर  पे  भी  सवार  है , संतुष्टि  ना  मुझे  है  ना मेरे  चाहने  वालों  को, ना  मैं  संयम  का  स्वामी  हूँ और  ना  ही  वो  चंद  लोग  जो  मुझे  अपना  कहते  है |


मेरी  मनास्तिथि  की  उधेड़बुन  के  निचोड़  में  मुझे  कभी कभार  "प्राप्ति " के  सतरंगी  रंग  नज़र  आते  है  और  फिर  क्षण  भर  में  सब  घुल  के  किसी  श्वेत  शून्य  में  खो  जाते  हैं, शायद  कुछ  खोने  का  एहसास  दिलाने  को |
  
बस इतना जान पाया हूँ की स्वर्णआभूषित   दुल्हन  का  सौंदर्य  हो  या  सर्वोच्च  पद  पे  आसीन  होने  का  वैभव, सबमे "कुछ कम" है ...

पुराणोक्त   स्वर्ग  के  ऐश्वर्यों  से ऊंचा  क्या  पा  सकते  है  हम ?
पर  क्या  वहां जाने  के  बाद  भी सुख  के  आदान  प्रदान  की  प्रथा  पर  अंकुश लगाया  जा  सकेगा ?
अगर  नही,  तो फिर  कहाँ तक दोडेंगे हम और क्या पाने को  ..?

परिवर्तन  आवश्यकता  है और उसकी कोशिश एक समझदार निर्णय |
एक बार इस  खतरनाक  सुन्दरता  से  दूर,  वही  उस  बयाबान  बीहड़  में  दुबकी एकाकी  झोंपड़ी  के  ठंडी मिटटी  के  आँगन  पे  लेट  कर  ज़रा  आँखें  बंद  करने  से  शायद  वो  मिल  जाये  जो  इस  छोर  पे कभी  ना  मिलने  का  वायदा  कर  सकता  हूँ  मैं |

मेरी  हर  उलझन, जिसमे  मैं किसी  न  किसी के  उलझे  हुए  चरित्र  को  सुलझाते  हुए  थक  जाया  करता  था  , यही पे  आकर  स्वतः  ही  समाप्त  हो  गयी |

कहते  हैं - आँखें  खुली  हो  तो  दिमाग  शांत  नही  रह  सकता, पर  मेरे  अनुभव  से  लगता  है - आँखें  बंद  करने  के  बाद विचारों  का  प्रवाह  ज्यादा  तीव्र  होता  है, तूफ़ान  से  पहले  शांति  रहती  है  पर  विचारो  का  वेग  उच्चतम  स्तर पे  जाकर ही  नियमित  होता  है |

जब  जब  मेरे  मन  में  विचारों  का  द्वंध  छिड़ा, मैं  वही  ठंडी  मिटटी  में सर झुकाए बैठा रहा और  शायद  हर  बार  मुझे  सही  जवाब  मिले, मुझे सुकून की  नींद  आई  |
अपने  दिमाग  के  बुने  जाल  से  अगर  आप  स्वयम  को  मुक्त  कर  सकते  हैं  तो शायद  और  कोई  बाँध  नही  सकता  आपकी  सरलता और स्वछंदता  को |

अथाह  विचारो  की  मझधार  में  बहा  तो  मैं  भी  बहुत बार, अब  भी  कई  बार गोते  खा  ही  जाता  हूँ |
अपने तरीकों से तैर  कर  पार  जाने  की  कोशिश  करने  पर  उबर   भी  जाता  हूँ  इस गहराई  से |  पर  वो  मुश्किल  बहुत  है और फलस्वरूप जो सुकून मिलता है वो इन सारे प्रयासों का उचित प्रतिफल है |

अब काश कोई  नैया  मिल  जाये ....जो  बिना  खुद  तूफ़ान  से  डरे , बिना बहाव  में  बहे ...मुझे  भी बहने से रोक ले और पार  जाना  सिखाये ....मुझे  खुद  पर  जीत  दिलाये ....

शायद  तभी  जीत  जाऊंगा  मैं  अपने  आप  से  और बच निकलूंगा अनंत विषैले विचारो के शाप से .....  

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