Friday, July 29, 2011

जाने कौन क्या समझे

ये दरिया - ए - इश्क की गहराइयां अँधेरी बहुत हैं

ये मंजिल - ए - मोहब्बत के रास्ते भी कहाँ सुलझे हुए हैं

अब तो मीठे लफ़्ज़ों में हाल - ए - दिल कहना भी मुनासिब नहीं

जाने कौन समझ बैठे की हम उसके ख्यालों में उलझे हुए हैं 



क्यों खफा हैं वो ....

तकल्लुफ तो उन्हें उस आवारा चाँद से होनी चाहिए

जो रात भर खिड़की से झांकता है छुप छप के उनका नूर चुराने को 

पर जाने क्यूँ वो खफा हैं हमारा उनकी गलियों से याराना जानकर

हमने तो फिर भी सरे बाज़ार सर उठा के नज़रें मिलाने की जुर्रत ही की है 

Wednesday, July 27, 2011

Special One...

i just brought some wet sand,
got myself a creative hand,
bought a place in some island,
and also some sticks to bend


turning the walls in a sweet home,
wid a beach in front to roam,
dancing a lot on her favourite song,
trying to sing bt got it all wrong,


her way is abound with some flowers all fresh,
candles are glowing it to a cherry choco cake,
a bunch of roses n lilies and one black dress,
a red wine and a poem, she will love it i guess,


preparing it all as she loves it as a gud surprise,
she is my beautiful imperfect angel but in disguise,
she is the wind i fly with n she own my wings,
m d happiest person to have her in my arm rings

Monday, July 18, 2011

जकड़न जीवन की ....


रिश्तों की जमा पूँजी को किश्तों में बेच बेच कर 
जो स्वर्ण समेटा है 
जो स्वांग लपेटा है

अब आंसुओं में धुल रहा है 

यही सफलताओं का ढेर 
बर्फ की रंगहीन तंग कैद में बदल रहा है 

मेरे सिमटे घुटनों की जकड़न के बीच 
सर भी तो छुपाया नही जाता अब मुझसे  


रक्त का जोश पथरा गया है
जहाँ तहां रुका बैठा ये भी समय व्यतीत कर रहा है बस 


नीली पड़ चुकी रक्त्जाल की रक्षक ज़मीन  
एक विष प्रवाहिनी प्रतीत होती है 

दिल खौफ में भी है और शायद इसीलिए चुप भी 
सहमी सांसें भी
रुक रुक कर 
छुप छुप कर
चुप चुप सी रोती है


कभी रात के शौक से अंधियारी लगती है गलियाँ  
और कभी सुख के सूरज की चकाचौंध में दृष्टि टूट जाती है 

इन बर्फ की उजली दीवारों में अँधेरा भी दिखाई देने लगा है  
और बस अँधेरा ही नज़र आता है 

इस प्राणहीन कटघरे में पड़ा बस तेरा इन्साफ देखने को 
रुका है ये राहगीर ओ मौला

कुछ कर पिघलाने को ये बेड़ियाँ 
बहुत लम्बी हो चुकी ये सर्द यात्रा मेरे जीवन की  
या तो पथ पे खड़ा हो जा चिराग लेकर 
या मेरा इसी मंजिल से ये आखरी सलाम स्वीकार कर 

Wednesday, July 13, 2011

खुदा खो गया हो जैसे ....

भोर की आँखें बोझिल हैं, तन्हा चाँद कल रात भर न सोया हो जैसे....
शाम का आँचल भीगा है, ढलता सूरज गोद में उसकी रोया हो जैसे....
न शाखों पे पत्ते, न हवा में खुशबु, न बगियाँ के फूलों में रंगत बची हैं...
ज़र्रे ज़र्रे की मुस्कान चली गयी तेरे जाने से, इस कायनात ने खुदा अपना खोया हो जैसे ...

मैं प्यार सीख रहा हूँ ...

बस खफा होने का तजुर्बा था मुझे, अब मिन्नतें करके मनाना सीख रहा हूँ
छुपाये रखे थे राज़ - ऐ - दिल जो मैंने, उन्हें किसी को बताना सीख रहा हूँ 
लफ़्ज़ों को पिरो के किसी गीत में, उनसे इजहार करने का बहाना सीख रहा हूँ 
जिनके क़दमों से महका है गुलशन मेरा, मैं उनकी राहें सजाना सीख रहा हूँ  
नींदें चुराता था कभी मैं , अब अपना ही चैन खोना सीख रहा हूँ 
बचा के रखा था ये मासूम दिल अब तलक, अब किसी का होना सीख रहा हूँ 
खुश रहा करता हूँ ख्वाबों से जिनके, उनकी जुदाई में रोना सीख रहा हूँ 
जो नूर बरसता है नज़रों से उनकी, उस प्यार में दामन भिगोना सीख रहा हूँ 
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