Tuesday, May 3, 2011

मैं ..."शब्दों" के संग

उन्मुक्त  बंधन  में  लिपटी  लहरों और  शांत  चंचलता  के  साथ  कल  कल  ध्वनि  करती  वो  निरंतर  प्रवाह   की  स्वामिनी  बन  इठला  रही  है, उसी  के  दो  विरोधी  किनारों  पे मुझे  दो  भिन्न  संस्कृति  नज़र  आती  रही  है |

एक  तरफ  साज  है, श्रंगार  है.....समाज  है  और  बाज़ार  है
तेज़  धुप  है, ममतामयी  छाँव भी  है ...कुछ  शहर  है, चंद  गाँव भी है 
हंस  हंस  के  लोट  पोट  होते  बच्चे , और पसीने  बहाते  किसान  है  
मंदिर  और  गिरिजाघर  है ....कहीं  गुरबानी  कहीं  अजान  है |

पर  दुसरे  छोर  के  घने  जंगल  के  सन्नाटे  को  चीरती  वो  पगडण्डी  जहाँ   जा  रही  है , उस  वातावरण  को  संस्कृति  कहना  शब्द  का  दुरुपयोग  करने  जैसा  है..... शायद  संस्कृति  के  सृजन  के  लिए  सहयोगी  घटक  उपलब्ध  नही  हैं  यहाँ |

झुरमुटो  के  तले  अँधेरे  में  नगण्य  गति  से  पलके  झपकाती  हुई, पलाश  के  जीवनहीन  पत्तों  की  चादर  में  दुबके  अपनी  पहचान  के  लुप्त  होने  का  इंतज़ार  कर  रही  एक वैभवहीन  झोंपड़ी |
जितने  प्रेम  और  निस्वार्थ  भावना  के  साथ  ये  संस्कृतिहीन  व्यवहार  मुझे  अपने  आलिंगन  में  लेता  है, उतने  जज्बातों  के  लिए  शायद  दुसरे  छोर  पर  अपनी  पूरी  आजीविका  व्यय  करनी  पड़े |

समाज  बहुत   प्रेमी  है, बस  उद्देश्यहीन  नही  है |
हर  इंसान  अपनी  मंजिल  की  तरफ  दूसरी  इंसानी  सीढियों  को पीछे  धकेल  कर आगे  बढ़  रहा  है | जितना  मूलभूत  नियम  भौतिकी  का  यह  है  - "चलने  के  लिए  आपको  प्रथ्वी   को  पीछे  धकेलना  होता  है" , सामाजिक  स्वभाव  में  उतनी  ही  गहराई  तक  "पीछे  धकेलने " का  नियम  समाहित  हो  गया  है  ...

प्रकृति  ने  हमारे  लिए  कोई  नियम  नही  बनाये  बस  स्वतंत्रता  दी , उसी  हक  के  गुमान  में  हमने  दूसरों  के  अधिकार  छीनने   शुरू  कर  दिए | नियमित  जीवन  आदर्श  माना  जाता  है  पर  नियमो  की  पारदर्शिता  भी  एक  विचारणीय  बिंदु  है |
वर्तमान  में  नियमो  के  अर्थ  अपनी  अनुकूलता  के  अनुरूप  ओढ़े  जाते  है और  जिनका  चोगा  बदलना  मुश्किल  है  वो  तोड़े  जाते  हैं |

सामाजिक  पशु  होने  का  धर्म  मैंने  भी  निभाया, नियम  निभाए  किन्तु जो  भी  मिला  "थोडा  कम " लगता  था ..संतुष्टि  नहीं  मिली | फिर  नियम  बदले  भी  और  तोड़े  भी और  जब  नियम  तोड़े  तो  लगा  जैसे एक  लकीर  को  छोटा  साबित  करने  के  लिए  बड़ी  लकीर  खेंच  दी  मैंने ...."जी तो भरा नही" बस  अपने  ही  दामन  पे  कुछ  कालिख  और  लगा  ली |

गलतियाँ  करने  के  लिए  हर  बार  मेरे  "सर्वाधिकार  सुरक्षित"  हैं और गलती  छुपाने  का  मानवीय  स्वभाव भी  मेरा  अभिन्न  अंग  है |  परन्तु इस  कलुषित  चेहरे  के  लिए  दोष  किसे  दूं  ?

लालच तो मेरे  सर  पे  भी  सवार  है , संतुष्टि  ना  मुझे  है  ना मेरे  चाहने  वालों  को, ना  मैं  संयम  का  स्वामी  हूँ और  ना  ही  वो  चंद  लोग  जो  मुझे  अपना  कहते  है |


मेरी  मनास्तिथि  की  उधेड़बुन  के  निचोड़  में  मुझे  कभी कभार  "प्राप्ति " के  सतरंगी  रंग  नज़र  आते  है  और  फिर  क्षण  भर  में  सब  घुल  के  किसी  श्वेत  शून्य  में  खो  जाते  हैं, शायद  कुछ  खोने  का  एहसास  दिलाने  को |
  
बस इतना जान पाया हूँ की स्वर्णआभूषित   दुल्हन  का  सौंदर्य  हो  या  सर्वोच्च  पद  पे  आसीन  होने  का  वैभव, सबमे "कुछ कम" है ...

पुराणोक्त   स्वर्ग  के  ऐश्वर्यों  से ऊंचा  क्या  पा  सकते  है  हम ?
पर  क्या  वहां जाने  के  बाद  भी सुख  के  आदान  प्रदान  की  प्रथा  पर  अंकुश लगाया  जा  सकेगा ?
अगर  नही,  तो फिर  कहाँ तक दोडेंगे हम और क्या पाने को  ..?

परिवर्तन  आवश्यकता  है और उसकी कोशिश एक समझदार निर्णय |
एक बार इस  खतरनाक  सुन्दरता  से  दूर,  वही  उस  बयाबान  बीहड़  में  दुबकी एकाकी  झोंपड़ी  के  ठंडी मिटटी  के  आँगन  पे  लेट  कर  ज़रा  आँखें  बंद  करने  से  शायद  वो  मिल  जाये  जो  इस  छोर  पे कभी  ना  मिलने  का  वायदा  कर  सकता  हूँ  मैं |

मेरी  हर  उलझन, जिसमे  मैं किसी  न  किसी के  उलझे  हुए  चरित्र  को  सुलझाते  हुए  थक  जाया  करता  था  , यही पे  आकर  स्वतः  ही  समाप्त  हो  गयी |

कहते  हैं - आँखें  खुली  हो  तो  दिमाग  शांत  नही  रह  सकता, पर  मेरे  अनुभव  से  लगता  है - आँखें  बंद  करने  के  बाद विचारों  का  प्रवाह  ज्यादा  तीव्र  होता  है, तूफ़ान  से  पहले  शांति  रहती  है  पर  विचारो  का  वेग  उच्चतम  स्तर पे  जाकर ही  नियमित  होता  है |

जब  जब  मेरे  मन  में  विचारों  का  द्वंध  छिड़ा, मैं  वही  ठंडी  मिटटी  में सर झुकाए बैठा रहा और  शायद  हर  बार  मुझे  सही  जवाब  मिले, मुझे सुकून की  नींद  आई  |
अपने  दिमाग  के  बुने  जाल  से  अगर  आप  स्वयम  को  मुक्त  कर  सकते  हैं  तो शायद  और  कोई  बाँध  नही  सकता  आपकी  सरलता और स्वछंदता  को |

अथाह  विचारो  की  मझधार  में  बहा  तो  मैं  भी  बहुत बार, अब  भी  कई  बार गोते  खा  ही  जाता  हूँ |
अपने तरीकों से तैर  कर  पार  जाने  की  कोशिश  करने  पर  उबर   भी  जाता  हूँ  इस गहराई  से |  पर  वो  मुश्किल  बहुत  है और फलस्वरूप जो सुकून मिलता है वो इन सारे प्रयासों का उचित प्रतिफल है |

अब काश कोई  नैया  मिल  जाये ....जो  बिना  खुद  तूफ़ान  से  डरे , बिना बहाव  में  बहे ...मुझे  भी बहने से रोक ले और पार  जाना  सिखाये ....मुझे  खुद  पर  जीत  दिलाये ....

शायद  तभी  जीत  जाऊंगा  मैं  अपने  आप  से  और बच निकलूंगा अनंत विषैले विचारो के शाप से .....  

1 comment:

  1. the river here ...is full of thought that keep coming in our mind...day and night.
    the 2 banks are ...one is the social life which is full of bad things, bad rules and people with unstoppable desires....

    the other is our soul..the intellectual...

    we need to control our thoughts and that can be done only with getting along with your inner soul.

    as per my experience...there is something which tells you "you are doing wrong"...but to be able to listen to that voice is very difficult..but if you do... it certainly helps.

    It's pretty easy if you find the face that do the same effect...it's really great to have someone like reflection of your inner soul... "some friend, some relative or could be anyone "

    keep smiling :)

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