लगी है हर कहीं इस शहर में अपनों का गला घोंटते झूठे रिश्तों की मंडी....
रक्त वर्ण से लथपथ काया, कालिख लगाती है चेहरे पे लाली के लिए...
न बारिश की बूँदें धवल, न इनमे जल, न इन्द्रधनुष दिखे अब सतरंगी ...
स्वप्न सजाने को जीवन जलता, दिल कितने जला रहें है दिवाली के लिए....
जल गये संस्कार, व्यवहार कब के, कर्तव्यों की चिता पड़ गयी अब ठंडी..
नीड त्याग भाग रहे, रात रात भर जाग रहें, ख्वाबों की रखवाली के लिए...
उस बेशक्ल मंजिल की ओर, जहाँ ले जाती है इक अंतहीन अँधेरी पगडण्डी....
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