किसी महफ़िल को रोशन करने को, क्यूँ शमां को जलना पड़ता है
सच को सच साबित करने को, क्यूँ सच को ही बदलना पड़ता है
बन जाता राख का ढेर वही, जो रेतों के महल सजाता फिरता है
परिपक्व और मीठा फल ही, सबसे पहले नीचे क्यूँ गिरता है
क्यूँ भीगना पड़ता उस नीड़ को है, जो पराये पंछी को बसेरा देता है
क्यूँ लुप्त अँधेरे में है होता वो भी, जो खुद सबको उजियारा देता है
खुश करने को अपनों को भी, क्यूँ अपनी खुशियाँ ही खोनी पड़ती है
चुनरी में लगे दाग छुडाने को, उसको कीचड से क्यूँ धोनी पड़ती है
स्वप्नों के बदले बिकते स्वप्न कहीं , रक्त के बदले मिलते रत्न कहीं
हैं ढेरों झूठे नकाब हर चेहरे पर, और फिरते हैं जख्म घुमते नग्न वहीँ
क्यूँ चीख रहे सब आजीवन,मेरे प्रश्न, बचपन, यौवन और मेरा अंतर्मन
क्या ढूंढ रहे तुम, सोचो तो ज़रा ए समझदारों, मैं तो बस ढूंढ रहा दर्पण...
No comments:
Post a Comment