मेरा छोटा सा, प्यारा सा गाँव ...धीरे धीरे शहर बन रहा है ...
खूबसूरत बन ने की कोशिश में जाने संवर रहा है या उजड़ रहा है ...
रास्ते लम्बे लगते थे तय करने में ...
जब धुल भरी पगडण्डी पे बैलगाड़ी में किसी से मिलने अढाई कोस जाना होता था ...
पगडण्डी का पहनावा बदल गया , हमारी सवारी बदल गयी ...
पर हैरान हूँ दूरियों को देख ..वो तो शायद कुछ ज्यादा फ़ैल गयी ...
बारिश में छप्पर से टपकता पानी ...
जब मिटटी के आँगन पे माँ के बनाये मांडनो पे गद्दे करता , मैं झल्लाता था ...
अब पक्के मकान बन गये हैं , पर अब घर महकता नही कभी ...
नूतन विकास के लिए हमने उन बूंदों और मिटटी के मिलाप से बनी खुशबु खो दी ...
हर विचार पे मिलते थे अनचाहे सुझाव ...
पहले ढेरो टिप्पणियाँ मिलती, फिर विजयी सुझाव पे सब अपना हक जतलाते थे ...
अब बाहर सभा नही जुडती , अब यु ही शाम नही कटती ...
मुश्किलें अब भी है , बस अब उतनी आसानी से नही सुलझती ...
पालतू पशु परेशानी के सबब लगते थे ...
झड़े हुए पत्ते और गोबर के बने कंडे , हर घर की मुंडेर पे दीखते थे ...
अब साफ़ रहती है चारदीवारी , पर खानपान की शुद्दता नही ...
गंदगी भी कम हो गयी ...पर पदों की छाँव भी न बची कही ...
सुस्ताती , धीमी ज़िन्दगी रास नही आती थी ...
हर शाम रंगीन चाहते थे , हर रात कही ऊँचा उड़ जाने के सपने दिखाती थी ...
दौड़ने लगे है अब , शायद थोड़े सपने भी पूरे हुए है ...
पर इस एक पल के लिए हमने ..सुकून के कितने पहर खोये है ...
चल रहा है गाँव मेरा ..अथक , निरंतर ...पर जाने किस मंजिल की और ...
पकडे चल रहे है जो डोर , एक अशांत एकाकी गली की और जा रहा है उसका दूसरा छोर ...