तू ख़ास महसूस नहीं होता अक्सर, पर मैं हक तुझपे ही जताता हूँ
जिद चलती बस तेरे सामने, हर पल तुझको ही सताता हूँ
तेरी दोस्ती की गहरी छाँव में, महफूज सा खुद को पाता हूँ
तुझे भूल भी जाता हूँ कभी कभी, तेरी गलती पे बहुत चिल्लाता हूँ
रूठ जाता हूँ कभी, कभी यूँ ही तुझे सताने के लिए बहुत इतराता हूँ
तेरी जानबूझ के हारी बाज़ी को, अपनी जीत मान इठलाता हूँ
कद्र नहीं करता तेरी बंदगी की, बस अपने एहसान गिनाता हूँ
तुझे माना था एक बेगाना मैंने, अब तुझको ही अपना यार बताता हूँ
तेरे साए से बिछुड़ जाऊं जो पल भर, इस भीड़ में बिलकुल तनहा हो जाता हूँ
तुझे खेंच कर अपनी हर मुसीबत में, एकदम बेफिक्र हो मैं सो जाता हूँ
दोस्ती के तोहफे में तुझसे मिली खुशियों को, तुझपे ही लुटाना चाहता हूँ
तुने थामी है जो दोस्ती की कश्ती, मैं भी उसकी इक पतवार उठाना चाहता हूँ
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