Tuesday, October 5, 2010

आम आदमी

पथराई आँखें, कांपते अंग,
        सहमी सी आवाज़, निर्बल शरीर...

अस्थियों के ढांचे को ढकता,
        चिरकाल पहले तार तार हो चूका चीर..

तपती धुप और कड़ाके की ठण्ड से
        जूझ कर मर जाना इनकी तकदीर...

भूख मिटाने को है बस झूठन
        पीने को बस आँखों से बहता नीर..

वादे किये जाते सावन के जिससे हर बार
        पर छाँव के लिए दिए जाते सूखे नीड़...

सियासत और रियासत की जंग में बेवजह
       ख़त्म होती निरीह, बदकिस्मत प्यादों की भीड़....

छल होता सपनो से इनके नए नए बहानो से
       जाली चेहरे दिखा कर हर बार ये लुटे जाते हैं....
   
ये "आम आदमी" है, तस्वीर नहीं बदलती इसकी कभी
        यहाँ कभी केनवास तो कभी चित्रकार बदले जाते है...

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