Tuesday, October 5, 2010

वादा क्या करूँ

चाँद तोड़ लाने का वादा मैं कैसे करूँ तुझसे

इक ज़मी पे दो चाँद इस कुदरत को मंज़ूर कहाँ

इन आसमान के तारों से तेरे दामन को क्या सजाऊं

जो बढ़ा सके तेरी रौनक, इन तारों में वो नूर कहाँ


तुझे सारे जहानों का सरताज बना देने की चाहत तो है

पर खुद खुदा को बेतख्त कर दूं, इतनी मेरी औकात नहीं

सपनों सा सुसज्जित तेरा एक महल बनवाने की हसरत भी है

पर पत्थर इस दुनिया में, मेरे जज्बातों की वो बिसात नहीं


हर राह तेरी फूलों से सजी हो यही कोशिश रहेगी हमेशा

पर शायद उनमे फिर भी, कुछ कांटे होंगे, कुछ कलियाँ होंगी

जब भी तेरे नाजुक कदम पड़ेंगे उस शूलों भरी सड़क पे

ये वादा है मेरा, तेरे पैरों के नीचे मेरी हथेलियाँ होंगी

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