जज़्बात दिलों में अब भी हैं, बस पहले जैसी अब सोच नहीं
जो रिश्ते प्यारे लगते थे, अब बन बैठें हैं बोझ वही
ये दौलत, ये शोहरत, इंसान से है, इंसानियत इन से नहीं
स्वार्थ और अहंता के पाश से डरो, रिश्तों के बंधन से नहीं
दुनिया के ये साज – ओ – सामान, साधन हैं यारों, मंजिल नहीं
भावनाओं के संरक्षक बनाओ इन्हें, जीवंत रिश्तों के कातिल नहीं
मोह, मनुष्य और मानवता से करो, इन निर्जीव वस्तुओं से नही
कर्म और उद्देश्य की महानता, उसमे निहित कारण से है, तुम्हारे तरीको से नही
No comments:
Post a Comment